रेलवे 21ः
वापस भी पैदल ही निकल पड़े। धर्मशाला से आधा किलोमीटर पहले जंगल में एक पेड़ के नीचे ढाबा था। खुले आसमान तले लाल रंग की कुर्सिया और लाल ही मेजें सजी हुईं थी। वहीं किनारे पर एक पाटा रखा था। उस पर ऊंची कुर्सी लगाकर एक गोल-मटोल व्यक्ति बैठा था। उसने गहरा रक्तिम श्रंगार कर रखा था, बिल्कुल रामलीला जैसा। उसके भाल पर लम्बा तिलक और गालों पर फूलों की कलाकृतियां उकेरी हुई थी। सबसे प्रमुख बात उसकी चोटी (Choti) सीधी खड़ी थी। चोटी (Choti) को सम्भवतया काजल या कोई रंग लगाकर काला किया गया था। चोटी (Choti) को सीधी रखने के लिए मोम भी लगाया होगा। उसके पास ही मंदिर जैसी एक घंटी लगी हुई थी और पताशों से भरी परात भी रखी थी। चोटीवाले का रूप तेनाली के पंडित जैसा लग रहा था। वह थोड़ी-थोड़ी देर मे घंटी बजाता। बच्चों को वह पताशे बांटता। हालंकि वह पताशे मुठ्ठी भरकर उठाता लेकिन बच्चों की हथेली पर रखते समय उसकी बंद मुठ्ठी से दो-तीन पताशे ही फिसलते।

पेड़ के नीचे लगी मेज-कुर्सियों पर लोग भोजन करने में तल्लीन थे। पास ही पक्की रसोई बनी थी, सम्भवतया दो-तीन रसोइये भोजन वहीं बना रहे थे। सब्जी-दाल में जीरा-तड़के से वातावरण महक रहा था। ढाबे में एक तरफ लकड़ी की टेबल पर मिठाई के थाल सजे थे जिनमें मुख्यतः कळाकंद, जलेबी, बेसन के लड्डू ,बालूशाही और “बाल मिठाई” रखी थी। “बाल मिठाई” यूं तो अल्मोड़ा की प्रसिद्ध मिठाई है। अपने विशिष्ट स्वाद के कारण इसका प्रसार हरिद्वार-ऋषिकेश तक पहुंच गया है। इसे तैयार करने के लिए मावे और चीनी को गहरे भूरे होने तक भूना जाता है। ठंडा होने के बाद लम्बाई में टुकड़े काटे जाते हैं। इसे चीनी और पोस्ता यानी खसखस के छोटे-छोटे सफेद दानों से सजाया जाता है। अल्मोड़ा की बाल मिठाई उसी प्रकार लोकप्रिय है जैसे बीकानेर के भुजिए-रसगुल्ले। प्रसिद्ध कुमायूंनी साहित्यकार और धर्मयुग पत्रिका में अपनी कहानियों से जनमानस पटल पर सकारात्मक चिंतन अंकित करने वाली पद्म श्री सम्मान से अलंकृत गौरा पन्त शिवानी ने अपनी कृतियों में इस मिठाई का जिक्र किया है। शिवानी का पैतृक निवास होने के कारण गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर कई बार अल्मोड़ा गए थे। चोटीवाले बाबा के बगल में ही एक खाली टेबल देख हमने भी आसन जमाया। यहां सिर्फ थाली सिस्टम था। दुपहरी में पेड़ की शीतल छाया तले भोजन का आनंद ही अलग था। चारों तरफ नजर घुमाकर देखो तो प्राकृतिक सौंदर्य की छटा बिखेरते हरेभरे पहाड़। ढाबे से मात्र पांच-छह सौ मीटर की दूरी पर पश्चिमी दिशा में गंगा का पानी निर्बाध गति से बह रहा था। भोजन के पश्चात हम ठिकाने पर आ गए। रास्ते में मुझे रह-रह कर चोटीवाले जैसे छाद्मिक किरदार से ढाबे की लोकप्रियता बढ़ाने और ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित करने का जुगाड़ गजब का आइडिया लगा। (क्रमशः)